यूँ तो दिन का उजाला था, सब कुछ बिल्कुल साफ दिख रहा था परन्तु मेरी आँखों के पानी ने सब कुछ धुंधला कर दिया था। बस तेजी से दिल्ली से मुरादाबाद की ओर भागी जा रही थी। अपने घर से चले हुए मुझे करीब १ घंटा हो चुका था। आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। चाहकर भी, मैं अपने पति को कुछ भी नहीं बता पायी थी। कई बार मन में आया कि सब कुछ बता कर अपना दिल हल्का कर लूँ; पर हिम्मत ही नहीं हुई और एक बार फिर से बस में बैठ कर मैं अपने घर से मुरादाबाद की ओर चल पड़ी थी।
उन दिनों मेरी नौकरी दिल्ली की ही एक कंपनी में थी और मैं उसी के तहत मुरादाबाद के एक इंस्टिट्यूट में इंग्लिश ट्रेनर के रूप में कार्यरत थी। मैं इंस्टिट्यूट में मुख्य अधिकरी के पद पर नियुक्त थी। अतः इंस्टिट्यूट का सारा उत्तदायित्व मेरे ऊपर ही था।
यह जॉब बहुत अच्छी थी और सब कुछ अच्छा चल रहा था। एक अच्छी सैलरी थी। एक बहुत शानदार पोस्ट थी। इसके अलावा और क्या चाहिए था मुझे? लेकिन पता नहीं क्यों दिल अचानक से उखड़ सा गया। इतनी अच्छी खासी नौकरी होने के बावजूद भी ऐसा लगने लगा जैसे कि सबकुछ खत्म होने वाला है।
यह सब एक दिन में तो नहीं हुआ था, लेकिन पता नहीं क्यों कब और कहाँ चीजें बिगड़तीं चली गईं। मैं समझ ही नहीं पाई कि उलझलनें इस कदर बिगड़ जाएगी या फिर इतनी बुरी तरीके से जिंदगी उलझ जाएगी कि मैं अपने ही पति को यह सारी बातें नहीं बता पाऊँगी।
वैसे भी बचपन से मैं एक ऐसी लड़की रही हूँ जिसने कभी भी अपनी परेशानी दूसरों को आसानी से बताई नहीं है। मैं हर संभव कोशिश करती हूँ कि मैं अपने ही तरीके से उन संकटों से बाहर आ जाऊँ जो जिंदगी ने मुझे दी है। नहीं, इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे जिंदगी से शिकायत है। जिंदगी इतनी अच्छी है कि जितने ज्यादा चैलेंज मुझे जिंदगी ने दिए हैं उससे कहीं ज्यादा मुझे हिम्मत दी है कि मैं उन सारी मुश्किलों को पार कर लूँ जो मुझे मिली हैं।
मैं अपनी उलझन में अभी खोई ही हुई थी कि अचानक से बस के तेजी से ब्रेक लगने की आवाज में मुझे वापस बस में लाकर पटक दिया। मैंने चारों तरफ देखा तो नदी के किनारे के पास हमारी बस एक ढाबे पर रुकी थी। हमारी बसअक्सर इसी ढाबे पर आकर रुकती थी क्योंकि यह ढाबा एक तो नदी के पास था और दूसरा यह दिल्ली और मुरादाबाद के बिल्कुल बीचो-बीच पड़ता था। ड्राइवर और कंडक्टर के लिए भी यह एक सुविधाजनक स्थान था। धीरे-धीरे करके सभी यात्री नीचे उतरने लगे।
अचानक, मेरे साथ की एक महिला ने मुझसे पूछा कि क्या मैं नीचे नहीं उतारना चाहूँगी। शायद वह मेरे मन की बात पढ़ चुकी थी। मेरे आँखों की लाली और रुके हुए आँसू शायद मेरे दिल की हालत को बयां कर रहे थे। मैं थोड़ी सी हिचकिचाईं परन्तु साहस बाँधकर मैंने अपनी आवाज़ को सँभालते हुए कहा, "नहीं मेरा आज नीचे उतरने का मन नहीं है। मेरे पैरों में थोड़ा दर्द है; मैं यहीं सीट पर आराम करना चाहूँगी ।
गाड़ी की खिड़की पर बैठकर नदी में बहता हुआ पानी बिल्कुल साफ दिखाई दे रहा था। उछलते हुई लहरें और पानी का तेज बहाव मेरे दिमाग की उथल-पुथल को और ज्यादा बढ़ा रहा था। अचानक ही बैठे बैठे दिमाग में ना जाने क्या हरकत सी हुई कि जिंदगी बेमानी सी लगने लगी।
लगा कि जिंदगी बस अभी खत्म कर लूँ। ना मैं रहूँगी और ना ये परेशानी। । मैं सोच ही रही थी कि अचानक से फोन की घंटी बजी। मैंने फोन उठाया और देखा। फोन घर से था। मेरी बड़ी बेटी फोन पर थी और बड़े जोश से मुझे अपने एग्जाम के रिजल्ट के बारे में बता रही थी। मैं उसकी बात सुन भी रही थी और अपने विचारों में भी खोई हुई थी। मेरा दिमाग तेजी से प्रश्न भी कर रहा था और खुद ही उनके उत्तर भी दे रहा था।
क्या मुझे अपने दोनों बच्चों को इस तरह से छोड़कर बीच रास्ते में चले जाना चाहिए? क्या मैं शांति पा सकूँगीं ? क्या मुझे सुख मिल जाएगा, अगर मैं इस तरह से अपनी जिंदगी को समाप्त कर लूँ ?
अचानक से फोन मेरे बेटे ने ले लिया और उसने अपनी ही तर्ज पर मुझसे बातें करना शुरू कर दिया। उसकी बातें इतनी अच्छी होती है कि आप कभी भी बोरियत महसूस नहीं कर सकते। मेरे दोनों ही बच्चों ने मेरा बहुत साथ दिया था शायद उन्हीं की वजह से मैं नौकरी कर पा रही थी।
उस समय मेरे दोनों बच्चें अपनी दादी के साथ हमारे दिल्ली वाले घर में रहते थे। हम आज भी संयुक्त परिवार में रहते हैं। हमने मिलजुल कर कई मुसीबतों का डट कर सामना किया है और एक योद्धा की भाँति विजयी भी हुए है। मेरे विचार बार-बार मेरी बच्चों से हटकर मेरी उलझन और मेरी उलझन से हटकर मेरे बच्चों तक जा रहे थे। मेरे विचारों पर मेरा ही बस नहीं चल रहा था। अचानक से फोन मेरे पति ने मेरे बच्चों के हाथ से ले लिया और मुझसे बातें करने लगे। मेरी आवाज सुनते ही वह पहचान गए कि शायद मैं किसी बहुत बड़ी मुसीबत में हूँ या मैं उनसे कुछ छुपा रही हूँ । उनके पूछने से पहले ही जैसे मेरी रुलाई फूट पड़ी और मेरी आँखों से आँसू बह निकले। मैंने झुकी हुई नजरों को ऊपर उठा कर देखा कि कहीं आस-पास कोई मुझे देख तो नहीं रहा है और मैं गाड़ी से धीरे से नीचे उतर कर नदी के तट के तरफ सीधी चली आई। गाड़ी के चलने में अभी आधा घंटा शेष था। मैं नदी की ओर बढ़ रही थी- सधे हुए कदमों से। उनके बार-बार पूछने पर अचानक ही मेरे मुँह से निकला - अगर मैं घर वापस ना आऊँ तो तुम बच्चों का ध्यान रख लेना।
मेरी बात सुनते ही उनके जैसे होश ही उड़ गए। अचानक से बोले जहाँ भी हो, जैसी भी हो, जिस हालत में भी हो, बस यह सोचना कि हम सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि जिंदगी हमारे साथ क्या खेल खेल रही है। परन्तु फर्क इस बात से पड़ता कि हम घबराकर एक दूसरे का साथ छोड़ देते हैं या फिर सामना करने के लिए फिर से एक दूसरे के साथ, मुसीबत के सामने खड़े होकर उसे हरा देते हैं। याद रखना हम में से यदि कोई एक भी हार गया तो हम सभी हार जायेंगें । क्या तुम चाहोगी कि हम सब हार जाएं? वह शायद घबरा भी रहे थे परंतु हिम्मत बाँधें हुए थे। उनके मुंह से निकला, "अनु, लौट आओ। मैं, बच्चे और हमारा सारा परिवार; हम सब साथ हैं। पैसा इतनी बड़ी चीज नहीं है जिसके लिए हम अपने घर का एक सबसे अहम सदस्य खो दें। वापस लौट आओ हम मिलकर इस मुसीबत का सामना करेंगे। परिवार इसीलिए होता है ताकि वह हमें संभाल कर रख सके। तुमने सब को इतना संभाला है तो क्या इस समय पर हम तुम्हारा साथ छोड़ सकते हैं? कोई भी ऐसा कदम मत उठाना जिसे वापस करना मुश्किल हो जाये। मेरे लिए, मेरे बच्चों के लिए और मेरे परिवार के लिए तुमसे ज्यादा जरूरी कुछ नहीं है। लौट आओ पूनम। मैं इंतजार कर रहा हूँ। या जहाँ तुम हो, सिर्फ मुझे बता दो। मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता; ना ही मेरे बच्चे और ना ही मेरा परिवार। तुम सुन रही हो ना। " हाँ, मैं सुन तो रही थी लेकिन दिमाग सुन्न था शायद सुनना ही नहीं चाह रहा था।
तभी दूसरी ओर मेरे बच्चों की आवाज भी सुनाई दी , "मम्मा, प्लीज आ जाओ। प्लीज, मम्मी आ जाओ। "
अचानक से जैसे किसी ने मुझे झकझोर दिया। बस यही वह क्षण था जब मैंने सोचा चलो इस मुसीबत को भी हराते हैं। जिंदगी से आवाज आई, "इतनी जल्दी कहाँ चली हो, पूनम। अभी तो बहुत कुछ है जिसे तुम्हें हराना है। लौट जाओ अपनी दुनिया में।" मैंने गहरी साँस ली और अब मैं पूरी तरह से तैयार थी - अपने बच्चों के पास, अपने पति के पास और अपने परिवार के पास वापस आने के लिए। मैं बस के पास पहुँची और मैंने अपना सामान बस से उतरा। अब मैं सड़क के दूसरी और खड़ी थी; दिल्ली जाने के लिए - वापस अपने घर। आँखों में आसूँ की जगह एक नयी चमक थी। अब चीजें पहले से भी साफ़ दिख रही थीं। अब मैं जानती थी की मुझे किस तरह से इस लड़ाई को लड़ना है। मैं तैयार थी । पूरी तरह से।
आगे क्या हुआ???
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